उत्तराखंड आंदोलनकारी फील्ड मार्शल दिवाकर भट्ट
देहरादून। उत्तराखंड राज्य के निर्माण के लिए आंदोलन से लेकर जनता की सेवा करने तक का सफर करने वाले, फील्ड मार्शल दिवाकर भट्ट का सोमवार शाम निधन हो गया, और उत्तराखंड की धरती ने अपना एक और सिपाही खो दिया, लेकिन कौन थे दिवाकर भट्ट, कैसे वो उत्तराखंड की राजनीति का जाना माना चेहरा बन गए, और कैसे उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई,
क्या आपने कभी सुना है कि एक व्यक्ति की हुंकार से पूरा हिमालय एकजुट हो जाए? क्या कोई नेता इतना ताकतवर हो सकता है कि सरकारें उससे डरें और युवा उसकी एक पुकार पर जान देने को तैयार हो जाएँ? उत्तराखंड की धरती ने ऐसा ही एक राजनेता देखा था, जिनका नाम था – दिवाकर भट्ट।और अब वो हमारे बीच नहीं रहे।
उत्तराखंड टिहरी गढ़वाल के छोटे से गाँव सुपार, बड़ियारगढ़ में साल 1946 में, दिवाकर भट्ट का जन्म हुआ था, दिवाकर वो नाम थे जिन्हें सुनते ही पहाड़ के युवाओं की रगों में आग दौड़ जाती थी। और जब भी राज्य आंदोलन की बात होती थी, तो सबसे आगे खड़ा मिलता था. एक दुबला-पतला, सादे कुर्ते-पायजामे वाला शख्स. दिवाकर, जिसकी आँखों में हिमालय जितना गुस्सा और समंदर जितना जुनून था। लोग कहते थे, “दिवाकर भट्ट आ गए हैं तो अब कुछ बडा होने वाला है।
दिवाकर का जीवन ही एक आंदोलन था। क्योकी मात्र 19 साल की उम्र में, वे 1968 में ऋषिबल्लभ सुंदरलाल के साथ दिल्ली के बोट क्लब पर खड़े हो गए, जहां पहली बार उनकी उत्तराखंड राज्य की माँग को देश ने सुना। वे जब 1970 में वे हरिद्वार की BHEL फैक्ट्री में नौकरी कर रहे थे, तो नौकरी करते हुए भी वे चैन से नहीं बैठे। वहाँ उन्होने पहाड़ी कर्मचारियों को इकट्ठा किया, और ‘तरुण हिमालय संस्था’ बनाई। और साल1971 में वे गढ़वाल विश्वविद्यालय के लिए उत्तराखंड की सड़कों पर उतर आए थे, फीर साल 1972 में उन्होने त्रेपन सिंह नेगी के साथ दिल्ली में धरना दिया। वे यही नहीं रुके,1978 में बद्रीनाथ से दिल्ली तक पैदल यात्रा करने वाले कुछ चुनिंदा नौजवानों में दिवाकर भी एक थे जिन्होंने इतना लंबी पैदल यात्रा में ठंड, भूख, थकान सभी को हरा दिया था।
इसके बाद 1979 में वे उत्तराखंड क्रांति दल UKD के संस्थापक सदस्य बने। और फीर 1982 से 1996 तक लगातार तीन बार कीर्तिनगर ब्लॉक के ब्लॉक प्रमुख रहे, साथ ही एक बार वे जिला पंचायत सदस्य भी चुने गए। लेकिन उन्हें असली पहचान साल 1994 से 1995 के बीच हुए उस भयंकर राज्य आंदोलन से मिली, जब मुजफ्फरनगर कांड हुआ, जब खटीमा और मसूरी में गोलियाँ चलीं, तब दिवाकर भट्ट सबसे आगे थे। हर मोर्चे पर सबसे आगे होकर उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई,
इसके बाद नवंबर 1995 में श्रीनगर के श्रीयंत्र टापू पर उन्होंने आमरण अनशन किया, और फिर दिसंबर में टिहरी के खैट पर्वत पर चढ़ गए, और पर्वत पर चढ़कर उन्होंने कहा कि “राज्य बनेगा, वरना यहीं प्राण त्याग दूँगा।” उत्तराखंड आंदोलन में उनका अडिग पहाड़ीपन, जो पहाड़ के हितों के लिए किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं होता था. जिसके चलते अक्सर पुलिस उन्हें ढूँढती थी, लोग उन्हें छुपाते थे, और फिर वो कहीं और से ही गरजते थे।
इसी तीखे तेवर को देखकर 1993 के उक्रांद सम्मेलन में इंद्रमणि बडोनी ने मंच से कहा था की, “ये लड़का कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं, ये तो मैदान का मार्शल है!” बस उसी दिन से पूरा उत्तराखंड उन्हें ‘फील्ड मार्शल’ कहने लगा।
दिवाकर का हमेशा ही राजनीति में वही सादगी और वही जुझारूपन बना रहा, दिवाकर की राजनीति का सिक्का तब चमका जब साल 2007 में वे देवप्रयाग से पहली बार विधायक बने। और मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी की सरकार में राजस्व मंत्री बने, उन्होंने उत्तराखंड के इतिहास के सबसे सख्त भू-कानून को बनाने में भी अहम भूमिका निभाई। और पहले 1999 फिर 2017 में उक्रांद के केंद्रीय अध्यक्ष रहे। वे 2012 में भाजपा के टिकट पर, और 2017 में निर्दलीय चुनाव लड़े, वे दोनों बार हारे, पर जनता के दिल में हमेशा जीते रहे।
वो कभी बड़े बंगले में नहीं रहे, कभी चमक-दमक नहीं अपनाई। हमेशा कुर्ता-पायजामा, और कंधे पर गमछा पहने, पैदल गाँव-गाँव घूमकर लोगों की तकलीफ सुनते, और उनकी लड़ाई लड़ते थे, हमेशा ही पहाड़ की हर छोटी-बड़ी समस्या पर उनकी आवाज सबसे तेज होती थी। चाहे वन अधिनियम के खिलाफ 1988 का आंदोलन हो, या फीर बाहरी लोगों द्वारा उत्तराखंड की जमीन खरीदने का मामला, या चाहे पलायन का दर्द, हर बार वे सबसे आगे वही खड़े मिलते थे।
लेकीन 26 नवंबर 2025 की शाम दिवाकर भट्ट का निधन हो गया है, वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे , और उनका राजधानी देहरादून के इंद्रेश अस्पताल में इलाज चल रहा था। निधन के बाद उन्हें उनके घर हरिद्वार लाया गया, जहां उन्होंने 79 वर्ष की उम्र में अपनी आखिरी सास ली, तो लगा जैसे पूरा हिमालय रो पड़ा हो। उनके निधन से उत्तराखंड की राजनीति और राज्य आंदोलन के इतिहास में गहरी शोक लहर फैल गई। निधन के बाद उनके पार्थिव शरीर को राजकीय सम्मान के साथ खटखड़ी श्मशान घाट ले जाया गया जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ,
आज जब हम उत्तराखंड को अलग राज्य के रूप में देखते हैं, तो यह मत भूलिए कि इस राज्य के हर कोने में दिवाकर भट्ट का खून, उनकी हुंकार, उनका जुनून बस्ता है। वो चले गए, लेकिन उनकी आवाज अभी भी पहाड़ों में गूँज रही है, की “ये हमारा उत्तराखंड है… इसे कोई छीन नहीं सकता!”
